यह पुराण विषय-वस्तु एवं वर्णन-शैलीकी दृष्टि से अत्यन्त उच्च कोटि का है। इसमें धर्म, सदाचार, नीति, उपदेश, अनेकों आख्यान, व्रत, तीर्थ, दान, ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र के विषयों का अद्भुत संग्रह है। वेताल-विक्रम-संवाद के रूप में कथा-प्रबन्ध इसमें अत्यन्त रमणीय है। इसके अतिरिक्त इसमें नित्यकर्म, संस्कार, सामुद्रिक लक्षण, शान्ति तथा पौष्टिक कर्म आराधना और अनेक व्रतोंका भी विस्तृत वर्णन है। भविष्य पुराण में भविष्य में होने वाली घटनाओं का वर्णन है। इससे पता चलता है ईसा और मुहम्मद साहब के जन्म से बहुत पहले ही भविष्य पुराण में महर्षि वेद व्यास ने पुराण ग्रंथ लिखते समय मुस्लिम धर्म के उद्भव और विकास तथा ईसा मसीह तथा उनके द्वारा प्रारंभ किए गए ईसाई धर्म के विषय में लिख दिया था।
यह पुराण भारतवर्ष के वर्तमान समस्त आधुनिक इतिहास का आधार है। इसके प्रतिसर्गपर्व के तृतीय तथा चतुर्थ खण्ड में इतिहासकी महत्त्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है। इतिहास लेखकोंने प्रायः इसीका आधार लिया है। इसमें मध्यकालीन हर्षवर्धन आदि हिन्दू राजाओं और अलाउद्दीन, मुहम्मद तुगलक, तैमूरलंग, बाबर तथा अकबर आदि का प्रामाणिक इतिहास निरूपित है। इसके मध्यमपर्व में समस्त कर्मकाण्ड का निरूपण है। इसमें वर्णित व्रत और दान से सम्बद्ध विषय भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इतने विस्तार से व्रतों का वर्णन न किसी पुराण, धर्मशास्त्रमें मिलता है और न किसी स्वतन्त्र व्रत-संग्रह के ग्रन्थ में। हेमाद्रि, व्रतकल्पद्रुम, व्रतरत्नाकर, व्रतराज आदि परवर्ती व्रत-साहित्य में मुख्यरूप से भविष्यपुराण का ही आश्रय लिया गया है।
सूर्योपासना और उसके महत्त्व का जैसा व्यापक वर्णन 'भविष्य पुराण' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को 'सौर ग्रंथ' भी कहते हैं। यह ग्रंथ बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। इस पुराण में दो हज़ार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है। 'भविष्य पुराण' के अनुसार, इसके श्लोकों की संख्या पचास हज़ार के लगभग होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में कुल अट्ठाईस हज़ार श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व। 'भविष्य पुराण' की विषय वस्तु में सूर्य की महिमा, उनके परम तेजस्वी स्वरूप, उनके परिवार, उनकी उपासना पद्धति, विविध व्रत-उपवास, उनको करने की विधि, सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षण, रत्नों एवं मणियों की परीक्षा का विधान, विभिन्न प्रकार के स्तोत्र, अनेक सप्रकार की औषधियों का वर्णन, वर्प विद्या का विशद् ज्ञान, विविध राजवंशों का उल्लेख, विविध भारतीय संस्कार, तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली तथा वास्तु शिल्प आदि शामिल हैं जिन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
ब्राह्म पर्व
ब्राह्म पर्व में व्यास शिष्य महर्षि सुमंतु एवं राजा शतानीक के संवादों द्वारा इस पुराण का शुभारम्भ होता है। प्रारम्भ में इस पुराण की महिमा, वेदों तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर यज्ञोपवीत संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दाएं हाथ में स्थित विविध पांच प्रकार के तीर्थों, ओंकार एवं गायत्री जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरुषों एवं राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है।
इस पर्व में दाएं हाथ में स्थित पांच तीर्थों में– देव तीर्थ, पितृ तीर्थ, ब्रह्म तीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ और सौम्य तीर्थ बताए गए हैं।
देव तीर्थ में ब्राह्मण को दाएं हाथ से दी गई दक्षिणा आदि कर्म आते हैं।
पितृ तीर्थ में तर्पण एवं पिण्ड दान आदि कर्मों का उल्लेख मिलता है।
ब्रह्म तीर्थ में आचमन आदि कर्म आते हैं।
प्रजापत्य तीर्थ में विवाह के समय लग्नहोत्र आदि कर्म आते हैं।
सौम्य तीर्थ में देव कार्य के लिए किए गए कर्म, पूजा-अर्चना आदि हैं।
इसी पूर्व में जिन पंच महायज्ञों का उल्लेख किया गया है, वे इस प्रकार हैं-
1.ब्रह्म यज्ञ,
2.पितृ यज्ञ,
3.देव यज्ञ,
4.भूत यज्ञ तथा
5.अतिथि यज्ञ
ये यज्ञ अपने नामानुसार ही किए जाते हैं। यथा-ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'ब्रह्म यज्ञ', पितरों की सन्तुष्टि और प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पितृ यज्ञ', देवतों की सन्तुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'देव यज्ञ', समस्त प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'भूत यज्ञ' और अतिथि की सेवा में रत रहना ही 'अतिथि यज्ञ' कहलाता है। इसी पर्व में स्त्री-पुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षणों के विषय में चर्चा करते हुए ब्रह्मा जी कार्तिकेय से कहते हैं। कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफ़ेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।
मध्यम पर्व
इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। चार प्रकार के मासों-
1.चन्द्र मास,
2.सौर मास,
3.नक्षत्र मास और
4.श्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है।
शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास 'चन्द्र मास',
सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय 'सौर मास',
आश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 'नक्षत्र मास' और
पूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय 'श्रावण मास' कहलाता है।
श्राद्धकर्म, पितृकर्म आदि 'चन्द्र मास' में करने चाहिए।
विवाह-संस्कार, यज्ञ, व्रत, स्नान आदि सत्कर्म 'सौर मास' में करने का विधान है।
सोम या पितृगण के कार्य 'नक्षत्र मास' में किए जाते हैं।
प्रायश्चित्त, अन्नप्राशन, मन्त्रोपासना, राज कर देना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म 'श्रावण मास' में करना चाहिए।
सूर्य-चन्द्र की तिथियों के योग से जिस माह में पूर्णिमा का योग न हो और तीस दिनों तक संक्रमण न हो, वह 'मल मास' कहलाता है। इस मास में कोई भी शुभ कर्म नहीं किए जाते। इसी पर्व में सूत जी विभिन्न तिथियों में किए गए कर्म विशेष के फलों का वर्णन भी करते हैं।
शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यदि बृहस्पतिवार हो तो उस दिन अग्नि पूजन करने से ऐश्वर्य और इच्छापूर्ति के अनुसार धन लाभ होता है।
आषाढ़ एवं श्रावण मास में मिथुन-कर्क राशि के सूर्य में द्वितीया तिथि को उपवास करके विष्णु पूजन करने से स्त्री जल्दी विधवा नहीं होती। इसी प्रकार अन्य तिथियों में किए गए पूजन से क्या-क्या प्राप्त होते हैं, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया है।
इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, तुलसी और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरुओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्त्व आदि का विस्तार से वर्णन है। वृक्षारोपण के लिए वैशाख, आषाढ़, श्रावण तथा भादों मास सर्वश्रेष्ठ और ज्येष्ठ, आश्विन, कार्तिक मास अशुभ एवं विनाशकारी माने जाते हैं। इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।
प्रतिसर्ग पर्व
प्रतिसर्ग पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। ईसा मसीह के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, सत युग के राजवंशों का वर्णन, त्रेता युग के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , द्वापर युग के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलि युग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नन्द, बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है। राजवंशों से सम्बंधित कई कथाओं के माध्यम से मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों के स्थापना की प्रेरणा देने में 'भविष्य पुराण' अग्रणी है। इस पुराण में प्रसिद्ध बेताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या वेताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।
'श्री सत्यनारायण व्रत कथा' का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है।
इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा। प्रसंगवश इसमें 'मार्कण्डेय पुराण' की भांति 'दुर्गा सप्तशती' के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है।
उत्तर पर्व
इस पर्व में विष्णु-माया से मोहित नारद का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का माहात्म्य गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन (पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए) तथा स्त्रियों को सौभाग्य प्रदा करने वाले अन्य व्रतों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
'भविष्य पुराण' की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ 'खगोल विद्या' और 'ज्योतिष' का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य वराह मिहिर,खगोल विद्या के ज्ञाता मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।
भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-'जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।
ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने। स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यास जी महर्षि पराशर और मत्स्य कन्या सत्यवती के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे। 'भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहाँ आए थे, जो बाद में 'आर्य' कहलाने लगे।
"भविष्य पुराण' के अनुसार दक्ष की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हुआ था। उसी से यम और यमुना पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है। सूर्य के अतिरिक्त इस पुराण में गणेश जी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है। इसमें बताया गया हे कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार से लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दुख सहन करना पड़ेगा-चाहे वह ब्राह्मण की क्यों न हो।
शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए 'भविष्य पुराण' कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरु होते हैं।
1.आचार्य जो वेदों का रहस्य समझाएं।
2.उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं।
3.गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें।
4.ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं।
महागुरु जो गुरुओं का भी गुरु हो; जिसने 'वेद', 'पुराण', 'रामायण' और 'महाभारत' की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा सूर्य, शिव, विष्णु आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।
'भविष्य पुराण' में व्रतों और उपवासों के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया का भी विस्तार से उल्लेख है। मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य कला का विशद वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में 'भविष्य पुराण' में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती। केवल कुछ प्रकार की मजदूरी का उल्लेख प्राप्त होता है। यदि पहले से मजदूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मजदूरी देनी चाहिए। साधारण तौर पर उस काल में मजदूरी 'पण' के रूप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था।
राखी -भविष्य पुराण की कथा
भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार देवता और दैत्यों (दानवों ) में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ परन्तु देवता विजयी नहीं हुए। इंद्र हार के भय से दु:खी होकर देवगुरु बृहस्पति के पास विमर्श हेतु गए। गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार किए और स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में इंद्राणी ने वह सूत्र इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधा जिसके फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई।
रक्षा विधान के समय निम्न लिखित मंत्रोच्चार किया गया था जिसका आज भी विधिवत पालन किया जाता है:
"येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
दानवेन्द्रो मा चल मा चल।।"
इस मंत्र का भावार्थ है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूँ। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।
यह रक्षा विधान श्रवण मास की पूर्णिमा को प्रातः काल संपन्न किया गया यथा रक्षा-बंधन अस्तित्व में आया और श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने लगा।
भविष्य पुराण-विशिष्ट स्थान
भविष्य पुराण का पुराण वांगमय में एक विशिष्ट स्थान है। यह पुराण आज के सन्दर्भ में बहुत ही जीवनोपयोगी है। वर्तमान में जो भविष्य पुराण उपलब्ध है उसमें केवल 28 हजार श्लोक प्राप्त होते हैं। व्यास जी की दृष्टि इतनी दिव्य थी कि वे भविष्य में घटित होने वाले सारे रहस्यों को उन्होंनें पहले ही इस पुराण में लिपि बद्ध कर लिया। इस पुराण में नन्दवंश, मौर्य वंश, बाबर, हुमायँू, तैमूर, शिवाजी, महादजी सिन्धिया आदि का भी वर्णन व्यास जी ने पहले ही इस पुराण में कर दिया। इस पुराण में महारानी विक्टोरिया की 1857 में भारत साम्राज्ञी बनने का भी वर्णन है। तथा यह भी बताया गया है कि अंग्रेजी यहाँ की प्रमुख भाषा हो जायेगी और संस्कृत प्रायः लुप्त हो जायेगी।
रविवारे च सण्डे च फाल्गुनी चैव फरवरी।
षष्टीश्च सिस्कटी ज्ञेया तदुदाहार वृद्धिश्म्।।
इस पुराण में भारतीय संस्कार, तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः भविष्य पुराण सौर प्रधान ग्रन्थ है। सूर्योपासना एवं उसके महत्व का जैसा वर्णन भविष्य पुराण में आता है वैसा कहीं नहीं है। पंच देवों में परिगणित सूर्य की महिमा, उनके स्वरूप, परिवार, उपासना पद्धति आदि का बहुत विचित्र वर्णन है। पुराण की कथा सुनने एवं सुनाने वाले को भी महाफल की प्राप्ति होती है।
एक बार कुमार कार्तिकेय भगवान सूर्य के दर्शन के लिये गये। उन्होंनें बड़ी श्रद्धा से उनकी पूजा की। फिर भगवान सूर्य की आज्ञा से वे वहीं बैठ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंनें दो ऐसे दृश्य देखे जिनसे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंनें देखा कि एक दिव्य विमान से कोई पुरूष आया। उसे देखते ही भगवान सूर्य खड़े हो गये, फिर उसके अंग को स्पर्श करके उसका सिर संूंघ कर उन्होंनें अपने भक्त वत्सलता प्रकट की एवं मीटी-मीटी बातें करते हुये उन्हें अपने पास बैठा लिया।
ठीक उसी समय दूसरा विमान आया, उससे उतर कर जो व्यक्ति भगवान सूर्य के पास आया उसकी भी भगवान सूर्य ने उसी प्रकार से उसका भी सम्मान करते हुये अपने पास बैठा लिया। जिनकी वन्दना स्वयं भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश किया करते हैं, उन भगवान सूर्य ने दो साधारण व्यक्तियों का इतना सत्कार क्यों किया यही कार्तिकेय कुमार के लिये आश्चर्य का विषय था। कुमार ने अपना आश्चर्य भगवान सूर्य के सामने रखते हुये पूछा, भगवन्, इन दोनों सज्जनों ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया जो आप इन्हें सम्मान दे रहे हैं।
भगवान सूर्य बोले, ये सज्जन जो पहले आये, अयोध्या में इतिहास पुराण की कथा कहा करते थे। कथा सुनाने वाले मुझे बड़े प्रिय लगते हैं। यम, यमे, शनि, मनु, तप्ति मुझे इतने प्रिय नहीं लगते जितने कि कथा वाचक। मुझे धूप, दीप आदि से भी पूजा करने में इतनी खुशी नहीं होती जितनी की कथा सुनाने से होती है। ये सज्जन कथा वाचक हैं। इसलिये मैं इन पर इतना प्रसन्न हूँ।
भगवान सूर्य ने आगे कहा कि ये सज्जन जो बाद में मेरे पास आये, उन्होंनें बड़ी श्रद्धा से अनेकों
पुराणों की कथा करवायी एवं सुनी। एक बार कथा समाप्त होने पर इन्होंनें कथावाचक की प्रदक्षिणा की और उन्हें सोना दान में दिया। इन्होंनें कथावाचक का सम्मान करते हुये श्रद्धापूर्वक कथा सुनी, इसलिये मेरी प्रीति इन पर बहुत बढ़ गयी। इस प्रकार इतिहास पुराण की कथा सुनना एवं सुनाना पुराण और पुराण वक्ता की पूजा करना भगवान को सबसे अधिक प्रिय है।
इस पावन पुराण में श्रवण करने योग्य बहुत ही अद्भूत कथायें, वेदों एवं पुराणों की उत्पत्ति, काल-गणना, युगों का विभाजन, सोलह-संस्कार, गायत्री जाप का महत्व, गुरूमहिमा, यज्ञ कुण्डों का वर्णन, मन्दिर निर्माण आदि विषयों का विस्तार से वर्णन है।
श्राद्ध के 96 अवसर बताता है भविष्य पुराण
पितृपक्ष पितरों के लिए खास समय है। इस पक्ष में विधि-विधान से श्राद्ध करके पितरों को संतुष्ट किया जाता है। हालांकि भविष्य पुराण श्राद्ध के 96 अवसर बताता है। श्राद्ध में विधान कम श्रद्धा अधिक महत्वपूर्ण है। श्रद्धा से यदि सूर्योदय के समय नहा-धोकर काले तिल के साथ सूर्य को जल दें अथवा गीता के सातवें अध्याय का संकल्प सहित पाठ कर उसके पुण्य को पितरों को अर्पित कर दें तो भी पितर संतुष्ट हो जाते हैं और धन-धान्य, यश-कीर्त, पुत्र-पौत्रादि में वृद्धि करते हैं।
यह बातें ज्योतिषाचार्य पं. शरद चंद्र मिश्र ने कही। उन्होंने कहा कि भविष्य पुराण में कहा गया है- ‘अमायुग्मनु क्रान्ति धृति पात महालया:। अष्टकाऽन्वष्टका पूर्वेद्यु: श्राद्धैर्नवतिश्च षट्’।। अर्थात् 12 माह की अमावस्याएं, 4 युगादि तिथियां, मनुओं के आरंभ की 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यपाति योग, 15 महालय श्राद्ध, 5 अष्टका, 5 अन्वष्टका तथा 5 पूर्वेद्यु, ये श्राद्ध के 96 अवसर हैं।
इसके अलावा पितृपक्ष की प्रत्येक तिथि श्राद्ध के लिए पवित्र है लेकिन उसमें भी कुछ तिथियां विशेष महत्वपूर्ण हैं- चौथ कल्याणी या चौथ भरणी, कल्याणी पंचमी या भरणी पंचमी, मातृ नवमी, घात चतुर्दशी, सर्व पौत्री अमावस्या व मातामह प्रतिपदा।
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