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बालकाण्ड | दोहा 58

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी।।
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा।।
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी।।
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई।।
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू।।
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।।
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन।।
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।

दो0-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं।।58।।

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