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बालकाण्ड | दोहा 18

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा।।
बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए।।
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते।।
बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे।।
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद।।
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा।।
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक।।
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक।।

दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।18।।

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