संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा।।
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी।।
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन।।
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।
सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी।।
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा।।
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा।।
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी।।
दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद।। 50।।
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